“राजतंत्र और तानाशाही: स्वतंत्रता का हनन”

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इस बात को समझिए…राजतंत्र चाहने वाले प्रायः तानाशाही और शोषक सोच के होते हैं। ऐसे लोग अपनी पसंद, अपने विचार और अपने व्यवहार को आम जनता पर थोपना चाहते हैं। उनका उद्देश्य यही होता है कि उनकी कही बातों को लोग अक्षरसः मानें, चाहे वह सही हो या गलत। वह चाहते हैं कि जनता उनके हाँ में हाँ मिलाए और किसी प्रकार का प्रतिउत्तर, प्रतिक्रिया या प्रतिकार न करे। दरअसल, ऐसे लोग जनता को मानसिक गुलाम बनाने का प्रयास करते हैं।

तानाशाही सोच का मूल तत्व यही है कि वह स्वतंत्रता को कुचल देती है। इसमें केवल शासक की इच्छा ही सर्वोपरि मानी जाती है और जनता को प्रश्न करने, आलोचना करने या असहमति जताने का अधिकार नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में नागरिकों की सोचने-समझने की क्षमता धीरे-धीरे दब जाती है और समाज भय के वातावरण में जीने को विवश हो जाता है। इस प्रकार राजतंत्र या तानाशाही आम जनता के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का हनन करते हुए उन्हें अधीनस्थ बना देता है।

इसके विपरीत लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वह हमें स्वतंत्रता देता है। लोकतंत्र में नागरिकों को बोलने और चुनने की आज़ादी मिलती है। यह व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और गरिमा प्रदान करती है। लोकतंत्र में शासक जनता का मालिक नहीं बल्कि सेवक होता है, और उसे जनता के प्रति जवाबदेह रहना पड़ता है। यही कारण है कि लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की नीतियों, कार्यों और निर्णयों पर सवाल उठाना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है।

तानाशाही सोच के लोग लोकतंत्र को इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि लोकतंत्र उनकी निरंकुश प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाता है। लोकतंत्र संवाद और सहभागिता को महत्व देता है, जबकि तानाशाही एकतरफा निर्णय और दमनकारी रवैये पर आधारित होती है। जहाँ लोकतंत्र में विचारों का आदान-प्रदान और असहमति को भी सम्मान दिया जाता है, वहीं तानाशाही में असहमति को विद्रोह मानकर दंडित किया जाता है।

अतः यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था नहीं बल्कि जीवन जीने की एक विधा है। यह व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता और न्याय को सुरक्षित करती है। तानाशाही सोच इसके विपरीत केवल भय, शोषण और अन्याय को जन्म देती है। इसलिए हमें सदैव लोकतंत्र को सशक्त करने और तानाशाही प्रवृत्तियों का विरोध करने के लिए जागरूक रहना चाहिए।


रिपोर्ट - जगदीश शुक्ला

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