ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं ॥
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥
ज्ञान वह है जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी [दोष] नहीं है और जो सबमें समानरूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिये जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो ॥ ४ ॥
[जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्यसेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मनका निगृहीत न होना, इन्द्रियोंके विषयमें आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत्में सुखबुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्टकी प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्तिका अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संगमें प्रेम-ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञानके द्वारा जाननेयोग्य) परमात्माका नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है।
रिपोर्ट – जगदीश शुक्ला










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