अल्हड़,अलहदा नगरी बनारस जिसके नाम में भी रस है

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अल्हड़,अलहदा नगरी बनारस जिसके नाम में भी रस है.जिससे पूरे विश्व को प्यार बरबस है.वह मौजदार तो है ही साथ में मज़ेदार, जायकेदार भी है.अगर कोई यहां मात्र तफरीह के लिये भी आता है तो.यहां आकर अपने दिल दिमाग और जुबान को यहीं गिरवी रख जाता है.

यहां घाट गंगा,सीढ़ी,सन्यासी, बाबा अविनाशी,घण्टा घड़ियाल से जब आपका मन अघा जाये और जिह्वा स्वाद और उदर तृप्ति के लिये अकुलाये तो निकल जाइये यहां की गलियों सड़कों पर.जो स्वाद यहां के ठेले खोमचे सड़कों किनारे मिलेगा वह खानपान आपको किसी स्टार मार्का होटल में भी न जंचेगा.

यहां हर मोड़ पर आपके नथुने स्वादिष्ट खानों पकवानों से टकराते रहेंगे.आपको लुभाते रहेंगे.यहां के चाट गोलगप्पे, जलेबी कचौड़ी,छोटी कचौड़ी जैसा स्वाद भगवान इंद्र के खानसामे भी पेश नहीं कर पायेंगे.यहां की मिठाईयां किलो भर आप बस चखने के नाम पर खा जायेंगे.

कुल्हड़ में परोसा गया यह आईटम है छोटी कचौड़ी जो मैदे के लोइया में आलू वगेरह के साथ हल्के मसाले में तलकर बनाया गया है.जिसे तोड़ने के बाद रसा चने की घुघनी निम्बू कच्चे प्याज और चटनी के साथ परसा गया है.जिसे पांडेयपुर में हम और मेरे भाई ने दो पुरवा सुबह सबेरे उड़ाया. मने मन हरिया गया.

कभी बनारस घूमने आईये तो सुबह का नाश्ता होटल में नहीं पक्के महाल के गलियों सड़कों किनारे करियेगा.मन मिजाज मस्तिया जायेगा. शाम को रेस्टोरेंट कि रेसिपी बाद में देखियेगा पहले ठेले पटरी का चाट गोलगप्पे को उदरस्थ करियेगा.मजा आये तो वाह बनारस कहियेगा.
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आप लोगों के यहां लोगों की सुबह की शुरुआत कैसे होती है पता नहीं.मगर हमारे बनारस के लोग तो ब्रश कुल्ला करके गमछे के अंटी में बीस तीस रुपया लेकर निकल जाते हैं.नाश्ते में कचौड़ी जलेबी छोटी कचौड़ी हुरने के बाद एक बीड़ा पान गुलगुलाते हैं,उसके बाद घर आते हैं.
रास्ते में अगर बचपन का या पुराना दोस्त मिल गया तो हाय हेल्लो नहीं.का बे ‘भोश्री’ वाले कहकर हाल खबर लेते हैं।

और यहां दोस्त आपस में “भोश्री के” करके न बात करें तो उनकी दोस्ती पुख्ता नही मानी जाती.यहां “महतारी कसम” पान के बराबर खाया जाता है.यहां मेनहोल में सिक्का गिर जाये तो दर्जन भर इंजीनियर वैज्ञानिक राह चलते पैदा हो जाते हैं. यहाँ सारे,बुजरीवाले एक सम्बोधन है.यहां के रविदास पार्क में बीएचयू के लड़के लड़कियां “मन चंगा” करने तो जाते हैं.मगर ढाई आखर प्रेम का शायद ही पढ़ पाते हैं।

 

 

रिपोर्ट – जगदीश शुक्ला

 

 

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