नाटक का प्रारंभ केशव के ऋग्वेद शिक्षक श्री वझे गुरुजी (नानाजी वझे) से होता है, जहाँ वे केशव की छोटी-छोटी शरारतों और छत्रपति शिवाजी महाराज के पदचिह्नों पर चलने की उसकी प्रबल इच्छा का उल्लेख उसके माता-पिता से करते हैं। सामाजिक चेतना जगाने वाले संवादों से नाटक धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। केशव ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में, परंतु दृढ़ निश्चय के साथ कलकत्ता जाकर डॉक्टर बनने का अपना सपना पूरा किया—
डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार बनने के बाद उनके क्रांतिकारी विचार, जातिवाद पर उनके स्पष्ट मत, और संघ के कार्य में अंतर की स्पष्टता—इन सबका सुंदर चित्रण किया गया है।
इतिहास प्रस्तुत करते समय वह नीरस न लगे, इसके लिए लेखक की कला और कौशल की परीक्षा होती है। इस नाटक में दो प्रसंगों को जोड़ने के लिए भारत माता की मधुर वाणी में प्रस्तुत प्रस्तावना दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती है। जब वास्तविक रूप से भारत माता मंच पर अवतरित होती है, तो पूरा सभागार खड़ा होकर उनका अभिवादन करता है—यह दृश्य सब कुछ कह देता है। मीनल मुंडले ने भारत माता की भूमिका अप्रतिम ढंग से निभाई है।
इतने सीमित समय में संघ के पहले तीन सरसंघचालकों का कार्य, उनका राष्ट्रीय नेतृत्व, नेतृत्व का हस्तांतरण, उससे जुड़ा इतिहास और जीवनचरित्र मंच पर इस नाटक ने इसे सफलतापूर्वक निभाया है, संघ की स्थापना का संकल्प, प्रचार-प्रसार का विचार और महात्मा गांधी व डॉ. हेडगेवार की भेंट का प्रसंग अविस्मरणीय सिद्ध होता है। महात्मा गांधी की भूमिका निभाने वाले संकल्प पायळ ने गांधीजी को इतने जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है कि उनकी चाल, बोलने का ढंग और अंत में मंच से निकल जाने तक सब कुछ अद्भुत और शानदार लगा।
प.पू. श्री गुरुजी (गोलवलकर) का जीवन, अखंडानंद के साथ उनका प्रवास, नागपुर लौटना, डॉ. हेडगेवार से मुलाकात, उनका अंतिम भाषण और सरसंघचालक पद का अत्यंत सादगी से प.पू. श्री गुरुजी को हस्तांतरण—ये सभी दृश्य दर्शकों को स्तब्ध कर देते हैं। इस हस्तांतरण और दृश्यों के परिवर्तन में संगीत का उपयुक्त प्रयोग दर्शकों को बाँधकर रखता है।
सरदार वल्लभभाई पटेल और प.पू. श्री गुरुजी के बीच संवाद, कश्मीर का भारत में विलय, संघ पर लगा प्रतिबंध—ये सब भारत माता के रूप में सूत्रधारिका की कोमल, किंतु ठोस वाणी में सहजता से प्रस्तुत होते हैं। वंदे मातरम् का गगनभेदी उद्घोष, भगवा ध्वज का संतुलित उपयोग और संघ घोष की लय—इन सबका अद्भुत समन्वय देखने को मिला।

युवा अवस्था के बाळासाहेब देवरस द्वारा प.पू. गुरुजी को किया गया प्रणाम अत्यंत प्रभावशाली और नाटक की पकड़ मजबूत करने वाला था।
बाळासाहेब देवरस का तीसरे सरसंघचालक के रूप में चयन, 1975 की आपातकाल की पृष्ठभूमि, उसके विरोध में हुए सत्याग्रह, मीसा बंदी, रामजन्मभूमि आंदोलन—ऐसे अनेक प्रसंग 1889 से 1996 तक की कालावधि प्रस्तुत किए गए।
“संघगंगा” – एक अनादि प्रवाह
नाटक के शीर्षक में “संघगंगा” शब्द प्रयोग अत्यंत सार्थक है। इन तीन भगीरथों ने जो प्रवाह आरंभ किया, वह आज शताब्दी मना रहा है। यह संघगंगा निरंतर कार्यों के रूप में बह रही है और अनंत काल तक बहती रहेगी—यह भावना नाटक ने दर्शकों तक प्रभावी रूप से पहुँचाई।
इस नाटक का लेखन श्रीधर गाडगे ने किया
नाटक के मार्गदर्शक श्री. रविंद्र भुसारी, निर्देशक संजय पेंडसे, निर्मात्री सारिका पेंडसे हैं। संगीत डॉ. भाग्यश्री चिटणीस का है और नेपथ्य सतीश पेंडसे ने रचा है। निर्माण में एड. रमण सेनाड, नीलिमा बावणे और अरुणा पुरोहित का योगदान है।
मनीष ऊईके (डॉ. हेडगेवार), एड. रमण सेनाड (प.पू. गुरुजी) और यशवंत चोपडे (बाळासाहेब देवरस)—इनके अभिनय ने तो सचमुच यह अनुभव कराया कि मानो हम संघ गंगा की इन तीन विभूतियों से साक्षात मिल रहे हों और उनके विचार सुन रहे हों।
नाटक का आरंभ मुख्य अतिथि माननीय रमेश जी, डॉ अजीत सेगल, डॉ संजय मेहता, राम वीर शर्मा, दीन दयाल पाण्डेय जी ने दीपप्रज्वलित कर किया।
प्रांत प्रचारक रमेश जी ने अपने सम्बोधन में कहा की शताब्दी वर्ष में संघ के प्रथम तीन सर् संघ चालकों के जीवन कार्य को जीवंत मंच पर देखना हम स्वयंसेवकों के लिए सौभाग्य का विषय है।
समापन पर नाटक के कलाकारों का सम्मान वीरेंद्र जायसवाल, क्षेत्र कार्यवाह रा. स्वयंसेवक संघ, व भाजपा नेता महेश चंद श्रीवास्तव ने किया।
संपूर्ण कार्यक्रम का संयोजन-संचालन महानगर सह महामंत्री अर्पित सीधोरे ने किया
सहयोग दिनेश श्रीवास्तव, प्रमोद पाठक, नवीन चंद्र, विशाल विश्वकर्मा ने किया।











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