पूर्व कुलपति प्रो. सुधीर कुमार जैन द्वारा नियुक्ति, पदोन्नति एवं पद सृजन में भारी अनियमितताएँ — न्यायिक, सीवीसी, सीबीआई एवं विजिटर स्तर की जांच की मांग

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बनारस    हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के पूर्व कुलपति प्रोफेसर सुधीर कुमार जैन द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान नियुक्तियों, पदोन्नतियों तथा नये पदों के सृजन में गंभीर अनियमितताएँ की गईं, जो बीएचयू अधिनियम, विश्वविद्यालय अधिनियमों, महामहिम विजिटर (भारत के राष्ट्रपति) के निर्देशों तथा शिक्षा मंत्रालय के आदेशों का खुला उल्लंघन हैं। बीएचयू अधिनियम 1915 की धारा 7(सी)(3) के अनुसार “कुलपति का कर्तव्य होगा कि वह अधिनियम, उपविधियों, अध्यादेशों एवं विनियमों का पालन सुनिश्चित करें।” किंतु प्रो. जैन ने इस वैधानिक दायित्व का घोर उल्लंघन करते हुए एकतरफा एवं मनमाने निर्णय लिये।

 

 

धारा 7(सी)(5) के तहत कुलपति को केवल सीमित आपातकालीन शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें नियुक्ति, पदोन्नति अथवा पद सृजन का अधिकार नहीं है। इसके बावजूद प्रो. जैन ने इन शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए बिना कार्यकारिणी परिषद की अनुमति के अनेक अवैध नियुक्तियाँ, पदोन्नतियाँ और पद सृजन किए, वह भी अनियमित रूप से गठित चयन समितियों के माध्यम से।

 

 

विश्वविद्यालय उपविधियों के अनुसार, कुलपति द्वारा प्रयोग की गई प्रत्येक आपातकालीन शक्ति को अगली कार्यकारिणी परिषद की बैठक में अनुमोदन हेतु प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। 11 अगस्त 2025 को हुई कार्यकारिणी परिषद की बैठक इसी उद्देश्य से बुलाई गई थी, किंतु वर्तमान प्रशासन ने जानबूझकर इन विषयों को प्रस्तुत नहीं किया। परिणामस्वरूप, ऐसी सभी आपातकालीन निर्णय स्वतः शून्य (null and void) माने जाएंगे, और आगामी कार्यकारिणी परिषद की 10 अक्टूबर 2025 की बैठक में इसे औपचारिक रूप से घोषित किया जाना आवश्यक है।

 

 

उपविधि 14, 15, 27 एवं 30 के अनुसार प्रत्येक नियुक्ति एवं पदोन्नति विधिवत गठित चयन समिति की अनुशंसा एवं कार्यकारिणी परिषद की स्वीकृति से ही वैध होती है। धारा 8(ए) एवं 10(1) तथा उपविधि 15(1) के तहत कार्यकारिणी परिषद विश्वविद्यालय की सर्वोच्च प्राधिकारी है, और उसकी स्वीकृति के बिना कोई भी प्रशासनिक या वित्तीय निर्णय वैध नहीं हो सकता।

 

विजिटर का आदेश दिनांक 11 जून 2001 एवं शिक्षा मंत्रालय का पत्र दिनांक 24 सितम्बर 2015 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “कुलपति आपातकालीन शक्तियों के अंतर्गत कोई नियुक्ति, पदोन्नति या पद सृजन नहीं कर सकते।” प्रो. जैन ने इन बाध्यकारी निर्देशों की खुलेआम अवहेलना कर महामहिम विजिटर की संवैधानिक सत्ता का भी उल्लंघन किया।

 

डीएसीपी (Dynamic Assured Career Progression) के मामलों में भी प्रो. जैन ने माननीय उच्च न्यायालय के आदेश का गलत अर्थ लगाया। न्यायालय ने केवल विश्वविद्यालय के अधिवक्ता द्वारा दिए गए कथन को अभिलेखित किया था; उसने किसी भी प्रकार का निर्देश विश्वविद्यालय अधिनियम के विपरीत नियुक्ति या पदोन्नति हेतु नहीं दिया था। इसके बावजूद, सैकड़ों अवैध पदोन्नतियाँ कर दी गईं जिन्हें तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए।

 

प्रो. जैन ने जानबूझकर कार्यकारिणी परिषद के गठन में देरी की ताकि वे “आपातकालीन शक्तियों” के नाम पर विश्वविद्यालय के समस्त कार्यों पर एकतरफा नियंत्रण बनाए रख सकें। इसके अतिरिक्त, उन्होंने परियोजना आधारित नियुक्तियों, Institute of Eminence (IoE) के तहत नियुक्तियों और बजटीय व्ययों में भी मंत्रालय के पत्रों (2015 एवं 2023) तथा विजिटर के आदेश (2001) की अवहेलना करते हुए गंभीर वित्तीय एवं सांविधिक उल्लंघन किए। इस प्रकार उन्होंने विश्वविद्यालय को एक व्यक्तिगत और निरंकुश शासन मॉडल की ओर धकेला।

 

यह पूरा प्रकरण धारा 7(सी)(3), 7(सी)(5), 8(ए), 10(1) तथा उपविधि 14, 15, 27, 30 का घोर उल्लंघन है, जो “गंभीर दुराचरण (Gross Misconduct)” की श्रेणी में आता है। इन कृत्यों ने विश्वविद्यालय की स्वायत्तता, वैधानिक ढांचे एवं संवैधानिक गरिमा को गहरा आघात पहुँचाया है।

 

अतः निम्नलिखित माँगें की जाती हैं—

1. पूर्व कुलपति प्रो. सुधीर कुमार जैन द्वारा लिए गए सभी निर्णयों को तत्काल शून्य एवं निरस्त घोषित किया जाए।

2. प्रो. जैन एवं उनके सहयोगी अधिकारियों के विरुद्ध उच्चस्तरीय न्यायिक, सीवीसी, सीबीआई एवं विजिटर स्तर की जांच कराई जाए, ताकि उत्तरदायित्व एवं दंडात्मक कार्यवाही सुनिश्चित हो सके।

3. बीएचयू में कुलपति द्वारा किए जाने वाले “तत्काल आदेश तक” (till further orders) नियुक्तियों एवं आपातकालीन निर्णयों की वैधता अधिकतम तीन माह तक सीमित की जाए, क्योंकि यही प्रथा भ्रष्टाचार एवं प्रशासनिक अव्यवस्था की जड़ बन चुकी है।

इन कदमों के बिना विश्वविद्यालय में कानून का शासन, पारदर्शिता एवं अकादमिक ईमानदारी की पुनर्स्थापना संभव नहीं। यह आवश्यक है कि कोई भी भविष्य का कुलपति या अधिकारी स्वयं को विश्वविद्यालय अधिनियम एवं उपविधियों से ऊपर न समझे।

 

रिपोर्ट धनेश्वर साहनी

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