ऋग्वेद के दशम मण्डल का 125वाँ सूक्त है ‘देवी सूक्तम्’ जिसका श्रेय दिया जाता है ऋषि अम्भृण की पुत्री वागम्भृणी को।

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इस सूक्त में अद्वैत दर्शन के भी बीज हैं क्योंकि इस सूक्त में देवी द्वारा अपनी शक्ति और व्यापकता की जो घोषणा है उसका गायन ऋषिका वागंभृणी ने स्व-स्तुति की शैली में किया है- अर्थात् (सायण के अनुसार) उस विदुषी ने ब्रह्म को जान लिया था और देवी के साथ स्वयं को एकरूप कर लिया था।यह सूक्त वैदिक हिन्दू संस्कृति में महिलाओं की बौद्धिकता और योगदान रेखांकित करने के साथ डिवाइन फेमिनाइन को स्तुत्य शक्ति के रूप में एकनाॅलेज करता है।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥ (३)

(मैं राष्ट्र की स्वामिनी, धन देने वाली, ज्ञान वाली एवं यज्ञोपयोगी वस्तुओं में सर्वोत्तम हूँ। देवों ने मुझे अनेक स्थानों में धारण किया है। मेरा आधार विशाल है। मैं अनेक प्राणियों में आविष्ट हूँ।)

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥ (४)

(मेरी सहायता से ही प्राणी अन्न खाते हैं, देखते हैं, सांस लेते हैं एवं कही हुई बात सुनते हैं। मुझे न मानने वाले क्षीण हो जाते हैं। हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें श्रद्धा करने योग्य बात बताती हूँ।)

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥ (५)

(जो व्यक्ति देवों एवं मानवों द्वारा सेवित है, उसे मैं ही उपदेश देती हूं। मैं जिसे चाहती हूँ, उसे शक्तिशाली, स्तोता, ऋषि एवं बुद्धिमान्‌ बना देती हूँ।)

अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोऽम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥ (६)

(मैं ही ब्रह्मद्वेषी त्रिपुर राक्षस को मारने के लिए रुद्र के धनुष का विस्तार करती हूँ। मैं ही मानव-त्राण के लिए संग्राम करती हूँ एवं द्यावा-पृथिवी में व्याप्त हूँ।)

 

 

 

रिपोर्ट जगदीश शुक्ला

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